एक बचपन का जमाना था खुशियों का खजाना था
चाहत चाँद को पाने की दिल तितली का दीवाना था
खबर न थी सुबह की और नहीं शाम का ठिकाना था
थक कर आना स्कूल से और खेलने भी तो जाना था
दादी कहानियो में परियो का फ़साना था
बारिश में कागज की नाव थी हर मौसम सुहाना था
हर खेल में साथी थे हर रिश्ता निभाना था
गम की जुबान न होती थी न ही जख्मो का पैमाना था
रोने की वजह न थी न हसने का बहाना था
अब नहीं रही वो जिन्दगी वो बचपन का ज़माना था
Friday, December 24, 2010
Friday, October 8, 2010

कुछ खिलोने आज भी साथ है कुछ बचपना आज भी है
कुछ यादे आज भी साथ है कुछ दर्द आज भी दिल में है
कुछ दोस्त आज भी साथ है कुछ रिश्ते यूही टूटे जा रहे है
कुछ उम्र बढती जा रही है कुछ वक्त सख्त होते जा रहा है
कुछ बाते अनकही है जो आज भी दिल में चुभती जा रही है
कुछ ख़त लिखे है लेकिन कुछ पते खोते जा रहे है
कुछ बंधन खुल रहे कुछ में गांठ पड़ती जा रही है
कुछ तो खास था मेरे बचपन में जो अब खो गया है
कुछ भी तो नहीं इस जंहा में दादी की परियो का जंहा कंहा है
कुछ आंसू है आँखों में मेरी माँ का आंचल कंहा है
कुछ झरोखे तो है पर उनसे कुछ नज़र नहीं आता है
कुछ पल हसने के तो होते है लेकिन उनमे खुशिया कंहा है
कुछ खिलोने आज भी साथ है लेकिन खेलना नहीं आता है !
- आज़म खान
Wednesday, October 6, 2010
अब तो जागे !!

अब तो मैं और अप सिर्फ जागते है चाय और खबरों के साथ ,
जगे हो तो चलो पड़ोस के आंगन दो घर छोड़ने के बाद !!
एक लाश पड़ी है तिरंगे में आधी अधूरी कल के धमाके के बाद ,
वजह तो खबरों में मिली होगी ,शायद आंतकवाद या नक्सलवाद !!
मैं भूल जाऊंगा आप भूल जाएँगे गुजरते हुए वक्त के साथ ,
लेकिन अंधी माँ क्या करेगी टुकडो में बटी बेटे की लाश के साथ !!
कभी जो निकलो उस वीरान घर के आगे से एक अरसे के बाद ,
उसी गली में मिलेगी एक अंधी बूढी , पुराने सवाल के साथ ,
“कितने हुए थे उसके बेटे के टुकड़े उस धमाके के बाद ” ?
क्या जवाब देंगे पगली माँ को ,पढ़े लिखे रुसुक वाले है आप !
या निकल जाएँगे आगे नजरे चुराकर अपने मरे हुए जमीर के साथ ,
अब तो मैं और आप सिर्फ जागते है चाय और खबरों के साथ !!!!
- आज़म खान
Sunday, September 26, 2010
Shahid Bhagat Singh

जूनून -ए -आज़ादी सबके खून में नहीं होती ,
यू शहादत को पाने की आरजू सब नहीं होती !
गरम खून का दावा तो हर जवान करता है ,
उबला ला सके लाखो में वो गर्मी सब में नहीं होती !
आजाद -ए -हिंद की आज़ादी की लड़ाई तो याद होगी आपको ,
फिर भगत सिंह की सालगिरह क्यों याद नहीं रहती !
यु तो जशन-ए -आज़ादी कई बार मनाई है ,
क्या कभी किसी को शहीद-ए-आज़म की याद आइ है !
जब भी लगे इंक़लाब का नारा ये शहीद याद रखना
यू तो जाने वाले वापस नहीं आते ,
पर हर इंक़लाब में भगत सिंह को जिन्दा करना !!!!!
-आज़म खान
Friday, September 24, 2010

पहली नजर में ही उनकी तस्वीर दिल में उतर गई ,
अब तो इश्क की सुरुआत जो हो गई !
मेरे गुलाबो को उनकी किताबो में जगह मिल गई ,
अब तो ये उनकी इजहारे मोहब्बत की अदा हो गई !
जिन राहो से तनहा गुजरते थे उनसे तन्हाई खो गई ,
अब तो ता उम्र साथ रहने की जुर्रत जो हो गई !
चलते चलते साथ में कई ख्वाहिसे जी गई ,
अब तो ख्वाबो में भी मिलने की इजाजत मिल गई !
हर जगह वो हमें दिखने लगे ये तो दीवानगी हो गई ,
अब तो फुर्सतो में भी मशरूफियत हो गई !
एक सुबह से शाम हो गई और वो हमे मिलना भूल गई ,
अब तो इंतजार की हद हो गई !
कई राते कई दिन गुजर गए कही वो बेवफा तो नहीं हो गई ,
अब तो दिल टूटना था कुछ खबर ऐसी मिल गई !
दुनिया की रिवायतो को निभाते हुए वो किसी और की हो गई ,
अब तो समझ अ गया क्यों ज़ारा वीर से जुदा हो गई !
वीर ज़ारा की तरह हमारी दास्ताँ भी सिर्फ अल्फाजो में सिमटी रह गई ,
अब तो सिर्फ कहानिया है सच्ची मोहब्बते जो ख़तम हो गई !!!
Tuesday, September 21, 2010
कश्मीर ऐसा क्यों हे !

कभी बर्फ को जलते हुए देखना हो तो इधर आजाना ,
कभी सफ़ेद पहाड़ो को सुर्ख होते देखना हो तो अजाना !
ये वादी -ए -कश्मीर हे जिसके चाहने वाले तो बहुत हे ,
लेकिन यहा कश्मीरियत को बचाने वाले गुम हे !
जवानी दीवानी होकर सडको पर पत्थरों से खेलती हे ,
दीवानी जवानी को सँभालने के लिए गोली बोलती हे !
सियासी हाकिम इस बीमार कश्मीर की नफ्ज टटोलते हे ,
लेकिन उन्हें कौन बताए , बीमार कश्मीर नहीं हुकूमत हे !
सब खोए खोए से हे कश्मिरिअत को लेकर ,
और रोई रोई सी हे आज वादी -इ -जन्नत !
उस माँ की आंख के अंशु सूखे भी न थे ,
की सियास्त्दारो ने बेटे के कफ़न से आज़ादी का झंडा बना लिया !
एक कफ़न तो तिरंगे झंडे वाला भी हे ,
लेकिन इसकी वजह दुश्मन की गोली नहीं हे !
सुलगती बर्फ पर स्याह होती जन्नत -ए - हिंदुस्तान देख आना ,
वक्त मिले तो कफ़न में लिपटे बेटे और माँ के आंशु भी पोछ आना !!!
Monday, September 20, 2010

नसीब में लिखा कौन बदल पाया हे
हथेली में बनी लकीरे खंजर से बदला नहीं करती
जिन दीवानो पर खुदा की मेहर होती हे
वो तलवारों के साया से डरा नहीं करते .
इश्क रूहानी वास्ता हे सूरत से होता नहीं
दीवारे कितनी भी ऊँची क्यों न हो
आशिकों को जुदा कर सकती नहीं
फिर क्न्यो दुनिया वाले नफरत की रीत निभाते हे
प्यार को भी दुश्मनी का बहाना बनाते हे!!!
'ये कविता खास तौर से श्री र र पाण्डेयजी के लिए ...जो कोई भी इन अरमानो को पसंद करे
मेरी छोटी सी गुजारिश पे ध्यान दे और मुझे यह तक लाने के लिए श्री र र पाण्डेय जी को शुभकामनाए जरुर दे!!!!"
- आज़म खान
Monday, September 13, 2010
Badlati Pehchan
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Kabhi socha na tha hogi aisi pehchan adhi adhuri,
Hoga desh itna modern,
Pijja, hot dog, bargar pe tapkegi laar,
Aur parathe puri ki yade,
Hogi bate bhuli bisri.
Adab, Namaskar, Good Morning bhule,
Hi Dude! Kahte hai bachche,
Fal, phul, dudh se to cream banegi,
Mardo ki bhi hogi rangat mulayam aur gori,
Kabhi socha na tha hogi aisi pehchan adhi adhuri.
Saraswati- Laxmi ka hoga sangam,
Ac- class room honge, hogi lakho ki siksha,
Itni mahengai me kaise padhega har tabke ka bachcha,
Nirdhan hue to kaise karenge,
Bade admi banne ke sapne sachche,
Sahar tarakki karte rahe,
Antar-rastriya karyakarm ayojit karte rahe,
Gaon me ab bhi bijli nahi,
Khudkusi karte kisano ki koi ginti nahi,
Kabhi socha na tha hogi aisi pehchan adhi adhuri.
Taknik ke jor mein fashion ke jor mein,
Yuva mast he angreji gano ke shor mein,
Kabhi freshers, kabhi rave party mein
Ladkhdate nase mein chur hain, azadi ke daur mein,
Kabhi patthar-baji bhi kar lete hain,
Padhe likhe berojgar tarkki ke daur mein,
Kyno he yuva ki hui samaj adhuri,
Kabhi socha na tha hogi aisi pehchan adhi adhuri.
Wrtten by : Azam Khan