Friday, August 31, 2012

अंग्रेजी शेरनी का दूध है जो पीता है वो दहाड़ता है


जैसे किसी फिल्म के नाम से उसकी कहानी का अंदाजा लग जाता है वैसी ही उम्मीद इस लेख के शीर्षक से करे. "अंग्रेजी शेरनी के दूध की तरह है जो पीता है वो दहाड़ता है" ये बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था. वैसे अंग्रेजी भाषा से तल्खी रखने वाले लोग इसे अंग्रेजो की लुंगी भी कहते है जिसे अंग्रेज हिन्दुस्तान छोड़ते हुए जान पूछ कर छोड़ गए या यूँ कहे की फेक गए. हिन्दुस्तान में अंग्रेजी हिंदी की सौतन बनके आई और अब आलम ये है की अंग्रेजी बोल पाना बहुत बुरी कमी लगता है. अंग्रेजी बोलने से छाती चौड़ी होती है या नहीं इस पर हिन्दुस्तान में शोध जरुर होना चाहिए. और एक शोध इस बात पर भी होना चाहिए की हिंदी बोलते हुए भारतीय होने पर गर्व कितना होता है ?
           अंग्रेजी सिखाने वाली फैक्ट्रियां हिंदी भाषी छेत्रों में किसी महामारी की तरह फ़ैल रही हैं. कोई ४०० में अँगरेज़ बना रहा है  तो कोई ५०० में क्रैश कोर्स करा रहा है. कोई अमेरिकेन अंग्रेजी सिखा रहा तो कोई ब्रिटिश. अंग्रेजी सिखाने वाली फक्ट्रियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. जाहिर है अंग्रेजी सीखने वालों की भी कमी नहीं है. आखिर ऐसा क्यों है ? अंग्रेजी के प्रति इतना लगाव क्यों है ? इसके पीछे कई वजह है. हिंदी को भले ही राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया गया हो लेकिन आज भी सरकारी महकमो में अंग्रेजी का प्रयोग ही ज्यादा होता है. अब तो देश के नेता भी बड़े-बड़े मौको पर अंग्रेजी में ही भाषड़ देना पसंद करते हैं. अंग्रेजी बोलने वालो के लिए रोजगार के अवसर हिंदी बोलने वालो की अपेक्षा ज्यादा हैं. आज के माता पिता भी अपने बच्चो को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ही पढ़ना चाहते हैं. एक तर्क ये भी है की गडित और विज्ञान जैसे विषयों को हिंदी पढना कठिन है और अंग्रेजी में पढना आसान. शायद इसीलिए हिंदी साहित्य आज कंगाली के दौर से गुजर रहा है. जितनी चर्चा अंग्रेजी के लेखकों की होती है उतनी ख्याति हिंदी के लेखकों को नहीं मिल पाती. क्या ये अंग्रेजीकरण का दौर हिंदी के लिए खतरे की घंटी है या सिर्फ एक लहर है जो कुछ सालों में ठंडी पड़ जाएगी. ऐसा नहीं है की हिंदी लुप्त होने के कगार पर है या फिर अंग्रेजी सीखने में कुछ खराबी है. किसी भी भाषा का ज्ञान हमारी कुशलता को बढ़ाता ही है. लेकिन आम बोल चाल में हिंदी की घटती प्रठिस्ता यह प्रश्न जरुर खड़ा करती है की हिंदी का भविष्य क्या होगा ?
            अंग्रेजी से हिंदी को कभी खतरा नहीं था और होगा. लेकिन अंग्रेजी मानसिकता का हिंदी मानसिकता पर हावी होना खतरनाक है. आप कैसे खुद को आज़ाद कहेंगे जब आप की सोंच पर अंग्रेजी की छाप दिखेगी. ज़रा सोचिये हिंदी में बनने वाली फिल्मे अगर खलिश अंग्रेजी में बननी शुरू हो जाएँ तो क्या उतना ही मजा आएगा. हिन्दुस्तानी हीरो हिरोइन से अगर अंग्रेजी में इज़हार करेगा तो क्या सीन उतना रोमान्टिक लगेगा. वो कुछ कुछ होता है वाली फीलिंग शायद पाए. हिंदी सिर्फ भाषा नहीं एक एहसास है उसे अपने जीवन में ज़िंदा रखिये. अंग्रेजी के अपने फायदे हैं लेकिन हिंदी जैसा कोई नहीं. रही बात हिंदी की दहाड़ की तो "भारत माता की जय" बोल कर देखिये, छाती चौड़ी भी होती है और गर्व भी होता है.  

                                                                                                    -आज़म खान 

Friday, June 15, 2012

बक-बक इंडिया !



फेसबुक, ट्विटर, याहू और न जाने क्या-क्या, फोन से बात-चीत या फिर मेसेज से चेटिंग, हर वक्त बक- बक. आखिर ये हो क्या रहा है इतनी सारी बाते आती कहा से हैं. इतनी मशरूफ जिन्दगी में वक्त कहाँ से मिलता है हर वक्त बक- बक करने के लिए . कहीं ये कोई नई बीमारी तो नहीं या फिर कोई नया टशन है. जो भी हो इससे अछूता कोई नहीं है. 
जरा सोचिये अगर इस संसार में लोग आपस में बात-चीत करना बंद कर दे तो क्या मंजर होगा. संसार गूंगा तो हो ही जाएगा और जब सुनने के लिए बाते नहीं होंगी तो बहरा भी हो जाएगा. फिर भगवान् को खुद ही पूछना पड़ेगा " इतना सन्नाटा क्यों है भाई. मतलब ये की बोलना तो बनता ही है. तो फिर बोलने में बुराई क्या है. लेकिन बोलने में सिर्फ बुराई ही ज्यादा है. घंटो फ़ोन पर लगे रहते हो किसी न किसी की बुराई ही तो करते हो. अनलिमिटेड पैक डलवाने के बाद बक-बक करने का पूरा लाइसेंस मिल जाता है.  फिर चाहे वो इन्टरनेट पैक हो या फिर फोन पैक. फेसबुक के आने के बाद से तो बक-बक करना और भी आसान हो गया है. जेब खर्च में से थोड़े से रुपये बचाने हैं और फिर फोन पर या लैपटॉप में हो जाओ शुरू, एक दम लापरवाह होकर. ओह ! माफ़ करिए बेपरवाह होकर . बेपरवाह सुनने में थोडा ज्यादा कूल लगता है. आज कल हम सब से बात करते हैं चाहे वो अपना हो या पराया, या कोई परदेसी. हम अब सब कुछ बाँटने लगे हैं. शायद सब ये मानने लगे हैं की सुख बाँटने से बढ़ता है और दुःख बाँटने से कम होता है. लेकिन सुख थोडा कम बंटता है और दुःख तो मुफ्त में ही मिल जाता है. बक-बक का हुनर तो सब के पास है. ये सुविधा सबको उपलब्ध है. अगर फेसबुक और फोन से परहेज करते है तो भी आप बक-बक कर सकते है. डाकू डकैती के लिए बदनाम हैं तो गाँव का चौपाल बकैती के लिए मशहूर है. ओहो ! आप फिर अपने आपको अलग-अलग सा मेहसूस करने लगे. अब आप तो शहरी बाबू हैं आपके यहाँ गाँव वाला चौपाल तो नहीं होगा. मगर हाँ ! वो विदेशी कोफ़ी शॉप और बर्गर-पीज़ा वाले रेस्टोरेंट तो होंगे ही, खाते जाइये और बक- बक करते जाइये.
इतनी बकैती के बाद जब आप थक कर घर पहुचते हैं तो माँ का कहना "खाना खा ले" कानो को चुभता होगा, बीवी प्यार से माइके जाने की बात कर दे तो दिमाग की नसे तन जाती होंगी. अगर आपके पड़ोस से मार पिटाई की आवाज सुनाई दे तो भी आप पड़ोसी से हाल खबर लेना नहीं चाहेंगे. वैसे क्या आप जानते हैं की आपके पड़ोस में रहता कौन है ? कैसे जानेगे, अब हम बक-बक ज्यादा करते हैं, सिर्फ बक-बक. एक दूसरे की परवाह कम करते हैं. हम शायद बेपरवाह हैं या फिर लापरवाह. चलिए कल से बक-बक संसार में भावनाओ के रंग भी भरते हैं. एक चाय की प्याली होगी और हमारी और आपकी बक-बक. अब इसकी उसकी बात मत करना. कुछ अपनी कहना और कुछ मेरी सुनना. तो फिर कल सुबह की चाय आपके साथ. पहले कहा जाता था तूने मेरा नमक खाया है अब कहा जाएगा तूने मेरी चाय पी है. अब बक-बक समाप्त.      

आज़म खान  

Thursday, June 14, 2012

ओ रे बुमनिया इ का किया तूने !






हमका का मालूम हतो की ओ हमारे साथ खेल रही है. हमतो दोस्त समझे रहे और ओ हमको चूतिया. बोली ! "हम आपके दोस्त है बहुत अच्छे वाले. आप बाकी लोगो पर ज्यादा ध्यान मत दिया करो कोई आपका भला नहीं चाहता है. हम आपका ख्याल रखेगे. इस शहर में अपने को अकेला मत समझिएगा. अब जरा कल की क्लास में क्या नोट्स दिए गए थे हमको देदो". हमारी कोपी भी ले गई और साथ में बिसवास भी. साला ऐसा लगा कितनी अच्छी लड़की है मोडर्न होते हुए भी इ बुमनिया दिल वाली है.
  ससुर दिल कहेका ! हम अन्धराने हते. ओ की हर बात पे हमारा सर नन्दी बैल की तरह हाँ में ही हिलता था. बोली इस से मत बोलो, उस से मत बोलो, ये मत पहनो ओ न पहनो, केतना ध्यान रखे है हमरा. ओ इतना ज्यादा नोटिस जो मिलने लगा था. हम तो कतई बौराई गए. एक पल के लिए हम तो ओको भी भूलने लगे जिसको हम जिन्दगी भर साथ निभाने का वादा किये रहे. साला सब मट्टी पलीत करने मे तुल गए. सब कुछ ओको पूछने लगे. आज सेव बनाए या नहीं, वो बोले, नहीं! सेव मत बनाओ सेक्सी लगते हो. बस फिर क्या था हम तो हवा में ही उड़ने लगते. आइना बोलता था सेव कर ले डाकू लग रहा है पर साला हमें तो सेस्की दिखने में आनंद आने लगा. हाथ पकड़ के बोलती "यु आर वैरी नाईस ! एक दम करीब आके, ऐसा जैसे फिल्मो में होता है वैसे ही आँखों में उतर के बोलती, योर इस्माइल इज सेक्सी" ! रूम पर आके हम घंटा भर सीशा देखते और समझने की कोशिश करते हमारे इस्माइल में सेस्की का है. और एक दिन तो हद ही हो गई साल सीढियों से उतरते हुए ओने....ओने हमारे होठो पे काट खाया....हमरा तो सब कुछ डोल गया और ओ बोली "यु किस वैरी जेंटली". हमको लगा इ सब तो लब वाला केस हुई रहा है, प्यार है. लेकिन हम तो किसी और से प्यार करते है फिर इ सब का है. सिर्फ सेक्स का भूख....छी छी छी ! इ लड़की ऐसी नहीं है और हम भी ऐसे नहीं है. हम अच्छे परिवार से है. इ सब ओ की तरफ से लब का सिग्नल है, सच्चा वाला प्यार है. हमार तो खोपड़ी इ उधेड़ बून में बस उलझने लगा. हमरा तो प्यार कोई और है फिर इ जो ये सब कर रही है... ओ सब का है.   
       परीक्षा की तलवार सर पर लटकने लगी. रात रात भर जाग जाग के नोट्स बनाए रहे. साला सुबह उठते तो आंखे तीर कमान भई  रहती. लेकिन ओ एक बार बोलती.... एक बार इस्माइल करोना, प्लीज़ !. हम बत्तीसी खोल देते. ओ बोलती सेक्सी लग रहे हो !  और ओके मुह से खुद को सेस्की सुनने में कसम से बड़ा मजा आता ! साला अन्दर बहर सब कुछ डोल जाता ! बदले में हमरे नोट्स ले जाती. हम इतने गिर गए थे की इ नोट्स हम अपने दोस्त लोगों को भी देने से मना कर देते पर ओको एक बार में ही दे देते . साला चुतियापंती की हद ! परीक्षा पूरी हो गई और ओका लब अड्वेंचर भी. अब न तो ओ हमार मेसेज का जवाब देती और फोन तो उठाती ही नहीं. बात होना बंद हो गया और हम सेस्की है या नहीं इ बात पे सक होने लगा. वास्तव में हम सेस्की नहीं चूतिया रहे. फिर से कॉलेज खुला तो ओ को दूसर की हेयर इस्टाइल सेस्की लगने लगी. अब सीसा देखते है तो बत्तीसी नहीं दिखाई देती और गलती से दिख भी जाए तो सेस्की नहीं लगती . हम सेस्की नहीं है हम जो है वही हैं. भैया ! अगर तेरा इस्माइल भी किसी को सेस्की लगता है, तो तू भी चूतिया बनने वाला है. वाह रे बुमनिया.                 

Tuesday, May 22, 2012

तेरी चाहत में.....!





है कितनी मोहब्बत, कैसे कर दू बयाँ 
तू मेरा हमसफ़र, तू मेरा हमनवां 
तेरी सोहबतों की है, आदत मुझे 
कैसे खत्म करूँ ये जो है दूरियां !

नहीं जी सकता तेरे बिन यहाँ,
तेरी ही पनाहों में रहना मुझे,
क्यों न फिर तुझ में जियों,
है तुझ में बसा,बस मेरा जहाँ

तेरे इश्क को, है दिल में बसाया
तू मेरी रूह का एक हिस्सा सा है,
तेरी चाहतों में हो जांऊं फ़ना,
तुझसे आगे अब मैं सोचूं तो क्या !

आ मिल जा मुझसे, तू हो जा मेरा
मेरे ख्वाबों को, तू अब हकीकत बना
सिर्फ एहसासों को, अब जी ले हम
कुछ ऐसे तू अब मुझ में समा !

-आज़म खान

नैतिकता का पिघलता हिमालय !



ऊँचे आदर्शों का बोझ ढोने के के लिए अडिग और आदर्शवान चरित्र की जरुरत होती है I आदर्शों और उसूलों की नीव पर जिन्दगी का मकान बनाने वाले लोग समाज से कम होते जा रहे है भावी और मौजूदा पीढ़ी के लिए आदर्श,उसूल और नैतिकता की बातें सिर्फ श्याही की मौताज हैं जिनकी वास्तविकता दैनिक जीवन से ओझल सी होती जा रही है नैतिकता का पाठ पढ़ाना जितना आसान है उतना ही उस पाठ को दिनचरिया में उतारना मुश्किल है I नैतिकता के उपदेश देने वाले संतमहात्माविचारक और नेता चरित्रिक दुर्बलता के शिकार हैं I इनको सुनने पढने और मानने वाले मजबूर हैं,इनसे प्रभावित नहींविचारों के साथ आचारों की कंगाली का ये नया दौर हमारे भीतर पनप रहे अँधेरे का प्रतीक है I
अच्छा खाते हैअच्छा पहनते हैं और उच्च शिक्षा भी प्राप्त करते हैं फिर भी हमारा ज़मीर कमजोर है  और कई मायनो में बेआब्रूह भी I इच्छाएं जरूरतों से ज्यादा हैं इसीलिए तो आधुनिक युग में काग़ज के नोटों से हल्का तो ईमान है जो बड़ी आसानी से डोलने लगता है Iकर्तव्यों की पोटली धूल चाट रही स्वर्गवासी पूर्वजों की तस्वीर के साथ स्टोर रूम के किसी कोने में पड़ी है Iदादाजी के कंधे पर सवारी कर बजार तक जानेवाले और गरम जलेबी खाने वाले पोते-पोती अब कूल हैं Iवो अब खुद नज़र का चश्मा पहनते हैं तो दादा जी को चश्मा ढूंड कर कैसे देंगेकमजोर नज़र चश्मे से ठीक हो सकती है लेकिन कमजोर नजरिया नहीं Iजब नजर के चश्मे के साथ समझदारी का नजरिया आएगा तब आँखों को काले रंग के फैशन वाले गोगल घेर लेते हैं Iसमझदारी आने से पहले हीनजर फैशन के अँधेरे में खो जाती है Iऐसे में काली श्याही से किताबों में लिखे नैतिकता के सिद्धांत दिखे भी,तो आखिर कैसे ! शायद यही वजह है की अब हमारे समाजसंसदसड़क ,कहानियोंउपन्यासों या यूँ कहे जीवन और सोंच से भी नैतिकता समाप्त होती जा रही है Iनौजवानों के सामने ऐसे बहुत कम आदर्श हैं जिन्हें आदर्शवादी कहा जा सकेगाँधीसुभाषसरोजनी और लिंकन नैतिकता के आदर्श तो हैं लेकिन आज के युग नहीं है I इनके जीवन का निचोड़ कडवा है कठिन है और इसे आज की पीढ़ी के लिए पी पाना बहुत मुश्किल हैअगर उनके बीच से निकल कर कोई और निस्स्वार्थ होकर गाँधी बनने की चेष्टा मात्र करे तो नैतिकता पर कम से कम बहस तो की जा सकती है Iसतयुग में आदर्शवादी पुरुषोतम राम को भी नैतिकता के प्रश्नों का जवाब देना पड़ा था और उन्होंने दिया भीतब नैतिकता जीवन का अनुशासन थीकलयुग में नैतिकता सिर्फ आडम्बर हैकलयुग के आदर्शों में इतनी शक्ति नहीं है की वो नैतिकता के प्रश्नों का सामना कर पायें Iलोक मंच से ७० वर्षीय अन्ना हजारे गांधीवादी तरीके से भ्रष्टाचार उन्मूलन की बात करते है और फिर उसी मंच से फांसी को भी जायज़ कहते हैं I वे गाँधीवादी होने का दावा भी करते हैं और गाँधीगिरी के साथ हिंसा को भी उचित मानते I क्रिकेट जगत के भग्वान सचिन तेंदुलकर दुनिया भर में करोड़ों लोगों के लिए आदर्श हैंलेकिन विवादास्पद स्थिति में चुप्पी को हथियार बना लेते हैं I मैच फिक्सिंग जैसे संगीन मामलों पर जब जनता सचिन से सच सुनना चाहती है तो सचिन खामोश रहते हैं Iदेश के महानतम अर्थशास्त्रियों की सूची में देश के मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम हमेशा लिया जाएगा Iमनमोहन सिंह भी लाखों लोगों के लिए आदर्श है I लेकिन जब घोटालों से घिरी सरकार की नाकामी की नैतिक जिम्मेदारी लेने की बात आती है तो गठबंधन की मजबूरियां गिना देते हैं I आज के आदर्शों में राम की तरह नैतिकता के प्रश्नों का सामना करने की हिम्मत क्यों नहीं हैक्या राम भग्वान थे इसलिए लेकिन राम सतयुग में इंसान बनके ही धरती पर आए थे I इंसान महान अपनें कर्मों से बन सकता है लेकिन नैतिकता से जुड़े यक्ष प्रश्नों का सामना किये बिना महानता साबित नहीं होती I आज की पीढ़ी अगर चरित्रिक खोकलेपन से जूझ रही है तो समाज में नैतिक आदर्शवान जीवनों की भी कमी है I देश दुनिया समाज तेजी से बदले हैं और बदल रहे हैं I प्रद्योगिकी और तकीनीकी में क्रान्ती की वजह से संसार सिकुड़ कर मुट्ठी में  गया हैजमीनी दूरियां कम हुई हैं तो रिश्तो में बढ़ी हैंनैतिकता के बीजों को जीवन में अंकुरित करने में  माँ-बाप और शिक्षक का सबसे बड़ा योगदान होता है I नैतिक जिम्मेदारियों से भाग पाना मुश्किल है अगर जमीर ज़िंदा होलेकिन वो पितावो माँऔर वो शिक्षक  कैसे  नैतिक मूल्यों की शिक्षा अपनी संतान को देगा जिसने खुद कभी नैतिकता का पालन किया ही  हो I      
      समय के साथ-साथ जीवन स्तर बेहतर हुआ है लेकिन जीवन की गुणवत्ता घटी है I जीवन में नैतिक मूल्यों की रिक्तता बढ़ी है I इस रिक्तता को पूरा करने के लिए हमारे ही समाज से समाज के लिए किसी  किसी को आदर्श बनना पड़ेगानैतिक प्रश्नों से जूझना भी पड़ेगा I ये प्रक्रिया कठिन होगी और जीवन पर्यंत चलेगी नैतिक मूल्य जब जीवन शैली का हिस्सा बनेगें तभी तो नैतिक एवं आदर्शवादी समाज का निर्माड संभव होगानैतिकता का हिमालय पिघल तो रहा है लेकिन अभी पिघला नहीं है I  


By: Azam Khan

(Published in AAJ SAMAJ)