Friday, March 30, 2012

एहसास..........

कुछ  खो  सा  रहा  था 
तुम  से  दूर  हो  रहा  था
कुछ  कदमो  का  फासला  था 
फिर  भी  न  तय  हो  रहा  था !
आँखों में आंसुओं का शैलाब लिए 
क्यों तुम खामोश खड़ी थी 
घर से गली तक तो चली आई तुम 
क्यों मुझ तक न अ सकी तुम 
कुछ तो था जो हमें रोक रहा था 
खता न तेरी थी न मेरी 
फिर क्यों ये रिश्ता तरस रहा था !
तुम रोकना चाहती थी मुझे 
मैं मुड़ कर हमेशा की तरह तुम्हे न देख पाया 
तुम्हे अकेले उस मोड़ पर छोड़ आया
मैं तुमसे दूर जा चूका था !
काश हम खुद में न सिमटे रहते 
दरमियाँ जो फासले है उन्हें एहसासों से बाट लेते !


मेरी अभिलाषा !

वैष्णव सर बहुत मन से दिनकरजी की रचना "पक्षी और बादल" को पढ़ते जा रहे हैं.....वे बोलते हैं....

ये भगवान के डाकिये हैं,
जो एक महादेश से
दूसरे महादेश को जाते हैं।
हम तो समझ नहीं पाते हैं,
मगर उनकी लायी चिठि्ठयाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़
बाँचते हैं।  

हर एक शब्द के अर्थ का निचोड़ मेरे मन में समाता जा रहा है. पक्षियों के जैसे मेरे मन को पंख लग गए. वो आजाद पंछी की तरह नीले असमान के तले बस उड़ता ही जा रहा है. उड़ते-उड़ते समय काल में न जाने कहा जाके रुका. अब मैं बचपन को कहीं पीछे छोड़ आया हूँ. न जाने कौन सी जगह है लेकिन बहुत खूबसूरत है. सफ़ेद चमचमाता घर है मानो चाँदी का वरक लगवाया गया हो. घर के बाहर हरे रंग की चादर में लिपटा हुआ छोटा सा बगीचा, जिसमे तरह तरह के फूल खिले हैं. देख कर ऐसा लगता है की जैसे इन्हें माँ ने पाल पोस कर बड़ा किया है, हर पतझड़ में इन्हें ममता और स्नेह के आँचल की छाया मिली है. तभी अचानक से बगीचे में बैठे सज्जन मुझे बुलाने लगते हैं. उन्हें मेरा नाम मालूम कैसे है ये समझ नहीं आ रहा था. उनके चेहरे पर नजर पड़ी तो हैरानी और बढ़ गई. ये मेरे पिताजी हैं. वो मुझे लगातार बुला रहे हैं लेकिन मैं चाह कर भी जवाब नहीं दे पा रहा हूँ. फिर यकायक सब कुछ दूर जाने लगता है और कुछ ही पलों में नीले आसमान का सफर पूरा हो गया. मैं अपनी कक्षा में लौट आया भविष्य की काल्पनिक यात्रा के बाद. पिताजी नहीं, वैष्णव सर मुझे बुला रहे हैं. वो मुझसे कविता पढने के लिए कह रहे थे. कविता पढने के बाद मैं खुद में एक बदलाव महसूस करने लगा. अब वो ख्वाब आँखों में पनपने लगे, जिनसे मेरी जिन्दगी की राह तय होने लगी.    
कुदरत हर चीज का इशारा अपने अंदाज में करती है. दिनकर जी की कविता शायद ईश्वर का इशारा है. अब खुद को सफलता की उस चोटी तक ले जाना है जहाँ से साडी दुनिया मुझे देख सके और सम्मान की नजरों से देखे. मैं अपने माँ-पापा से गर्व से कह सकूँ  की जिन्स्दगी मैंने वैसी बना ली है, जैसी कभी उन्होंने मेरी लिए ईश्वर से मांगी होगी. अब मेहनत करने की एक और वजह मुझे मिल  चुकी है. किसी भी माँ-बाप के लिए इससे बड़ी बात कुछ नहीं हो सकती की उनकी औलाद सफल है और खुस है. मैं उस पल को जीना चाहता हूँ, जिस पल मैं अपनी माँ से ये कह सकूँ की "माँ मैं खुश हूँ"  अब उस पल को जीने की अभिलाषा मेरे मन में घर कर चुकी है. अपने माँ-पापा के ख्वाबों में रंग भरना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है. और हाँ वो चंडी सा चमचमाता घर भी मेरे माँ-पापा का होगा.  कुदरत हमें ईशारा करती है बस उन इशारों को समझना हमारी फितरत में होना चाहिए. मंजिल को चुनना जरुरी है. उस मंजिल तक जाने वाली राह जरुर मिल जाती है.    


Friday, March 23, 2012

शहीद-ए-आज़म यादों में भी नहीं रहे I



कुर्बानिओं के दौर अब नहीं रहे ,
कुर्बान होने वाले सरफ़रोश भी नहीं रहे I
फांसी के फंदे को चूमने वाले नहीं रहे, 
अहल-ए-वतन के दीवाने भी नहीं रहे I

मौत से नज़रे मिलाने वाले नहीं रहे, 
शहादत की दुआ मांगने वाले भी नहीं रहे I
ईमान की राह से गुज़रने वाले नहीं रहे, 
और जो गुज़रे थे उनके निशान भी नहीं रहे I

आज़ादी के हिस्सेदार है सब, हक़दार नहीं रहे ,
शहीदों के कफ़न और कब्र के सौदागर रह गए I
हम और तुम जज्बा-ए-वतन को ढूंढते रहे ,
और शहीद-ए-आज़म यादों में भी नहीं रह गए I
                          --आज़म खान